12/1/09

बाहों में सिमटा आकाश


 पत्र की लिखाई पर दृष्टि जाते ही शालिनी चौंक उठी - क्या ये सम्भव था? निःसन्देह पत्र साहिरा का ही था। आज इतने दिनों बाद आए इस पत्र ने शालिनी की सभी आशंकाओं को दूर कर दिया......... तो सारा जीवित है। हम सब प्यार से साहिरा को 'सारा' पुकारते थे। जाड़े की खुशनुमा धूप के टुकड़े की तरह सारा आते ही छा जाती थी। उसकी चंचलता और खिलखिलाहट से वातावरण रॅंग जाता था। सारा के उजले, नरम पाँव जब डिपार्टमेंट की कोमल दूब पर पड़ते तो अनगिनत दिल उसके पाँव-तले बिछ जाने को बेचैन हो उठते थे। बचपन में ही माँ के निधन के कारण सारा का अधिकांश समय शालिनी के घर पर ही बीतता था। अम्मा का बिन माँ की बेटी सारा पर अगाध स्नेह था- अतिशय उदारता के साथ अम्मा ने सारा को भी बेटी-सा अपना लिया था। घर के हर तीज-त्योहार पर सारा की शालिनी के घर उपस्थिति अनिवार्य थी। कठोर पिता की छत्रछाया में सारा पत्थर पर उग आई दूब-सी कोमल थी। दोनों ने एक-साथ, एक ही विषय में एम ए कक्षा में प्रवेश लिया था।
डिपार्टमेंट में शोध कर रहे सिद्धार्थ को देख शालिनी के मुख से बरबस ही निकल गया था-
सारा, देख सिद्धार्थ राजेश खन्ना से कितने रिज़ेंम्बल करते हैं न?
अपनी प्रतिक्रिया दिए बिना सारा ने सिद्धार्थ को आवाज दे बुलाकर कहा था-
सिद्धार्थ जी!  ये हमारी शालू..........आई एम साँरी...........मेरा मतलब मिस शालिनी मेहता कह रही हैं, आप राजेश खन्ना....... उस सुपर स्टार के कजिन हैं। शायद इसीलिए उनसे आपकी इतनी रिजम्बलेंस है। ठीक कहा न शालू?  शैतानी से सारा मुस्करा दी थी।
सिद्धार्थ की मौन स्मिति पर शालू अगर धरती में समा सकती तो कितना अच्छा होता!
मैंने ऐसा कब कहा था?  जो मन में आया बोल देती है। शालू की झिड़की बेमानी हो उठी थी,  लज्जा से आरक्त मुख दूसरी ही कहानी कह रहा था।
अरे भई हमने तो सच ही कहा था। सच सिद्धार्थ भाई, आप तो एकदम हीरो लगते हैं। सारा एकदम सहज थी।
ये आपकी धारणा है या आपकी सखी की? खैर, मैं दोनों का शुक्रगुज़ार हूँ- याद रहेगा आपका ये काँम्प्लीमेंट।
सिद्धार्थ के जाते ही शालू सारा पर बरस पड़ी थी-
घर चल, आज अम्मा से शिकायत न की तो मेरा नाम शालिनी नहीं................।
हाय मेरी बन्नो,  दिल में जनाब के लड्डू फूट रहे हैं।  ऊपर से ये अन्दाज- जवाब नहीं है आपका। सच कह, तेरे दिल की ही बात तो कही थी न? वैसे तेरे साथ ठीक -ठाक जमेंगे सिद्धार्थ...........।।
धत! सिन्दूरी चेहरा शालू के प्रतिवाद को झुठला गया था।
उस दिन डिपार्टमेंट में देवेश जी का पहला दिन था। एक दिन पहले ही सारा कह रही थी। कल वह नया लेक्चरार आ रहा है, पहले दिन ही उसकी छृट्टी कर देनी है। कुछ सोचना पड़ेगा।
और अगर छुट्टी न कर पाई तो? शालिनी ने शंका व्यक्त की थी।
तू हर बात में बेकार बोलती है, शालू!  जानती नहीं क्लास में पहले दिन हर टीचर को परीक्षा देनी होती है। अगर जम गए तो चलेंगे यार,  वर्ना कुर्सी छोड़ घर की राह लेंगे। अपनी बात पर सारा को पूरा विश्वास हुआ करता था।
उतनी सब बातें बनाने के बाद भी देवेश जी के पीरियड में सारा नदारद थी। क्लास में खासा एक्साइटमेंट था। लड़कों की तैयारी वातावरण का पूर्वाभास दे रही थी। देवेश जी ने कक्षा में जैसे ही प्रवेश किया तो मानो उनके तेजस्वी व्यक्तित्व से कुछ क्षणों को सन्नाटा-सा खिंच गया।
हलो फ्रेंड्स!  मैं डाँ देवेश। आज से आपके साथ रहूँगा। मित्र के नाते आपके सहयोग की अपेक्षा रहेगी।
अरे यार! ये पढ़ाने नहीं,  दोस्तबाजी करने आए हैं!
जरा सम्हल के रहना भइया,  कहीं दोस्ती महॅंगी न पड़ जाए! पीछे से उभरी आवाजों पर ठहाके गूंज उठे थे।
सच ही तो कहा, पता नहीं कब, किस पल, क्या हो जाए! जीवन के हर पल हम कुछ नया ही तो सीखते हैं, इसलिए पता नहीं कौन किसे पढ़ाएगा? अटेंडेंस के साथ आपसे परिचित होता चलूंगा। अविचलित डाँ देवेश ने पेन निकाल अटेंडेंस लेनी शुरू कर दी थी।
शालिनी की व्यग्र दृष्टि बार-बार बाहर जा रही थी- ये कमबख्त सारा कहाँ रह गई? आधे नाम पुकारे जा चुके थे। हर नाम के साथ डाँ देवेश की दृष्टि उस नामधारी के साथ परिचय बनाती जा रही थी। सारा का नाम आते-आते शालिनी निराश हो चुकी थी-'जरूर आज फिर देर से सोकर उठी होगी, एक पीरियड बाद ही पहुंचेगी।' साहिरा का नाम पुकारते ही दरवाजे से आवाज आई थी-
यस सर! लम्बा कोट पहने सारा खड़ी थी।
यू आर लेट मिस साहिरा............! देवेश जी ने गुरू-गम्भीर स्वर में कहा था।
शायद भागकर आने के कारण साहिरा का गोरा चेहरा लाल बहूटी हो रहा था, साँस तीव्र गति से चल रही थी। कक्षा में नरम गरमाहट भर गई थी। उसकी उस अविस्मरणीय छवि पर न जाने कितने जोड़े नयन-निबद्ध थे। मायूसी से सिर झुका बड़ी शालीनता से साहिरा ने कहा था-
साँरी सर, आज रिक्शा वाला देर से पहुंचा................।
आइए, पर भविष्य में केयरफुल रहिएगा। मै। लेटकमर्स को क्लास में आने की परमीशन नहीं देता। देवेश जी आगे नाम पुकारने लगे थे।
थैंक्यू सर, याद रक्खूँगी। क्लास में आते ही सारा शालिनी के पास सटकर बैठ गई थी।
इतनी देर कहाँ लगा दी? शालिनी ने फुसफुसाकर पूछा था।
पहले ही दिन रोब झाड़ रहा है, इसी का इन्तजाम करने में तो देर हो गई थी, मेरी शालू! सुनते ही शालिनी के कान खड़े हो गए, भगवान जाने क्या सोचकर आई है!
थोड़ी ही देर बाद म्याऊं-म्याऊं की आवाज अपने पास से आती सुन शालिनी नर्वस हो गई थी। देवेश जी ने पेन नीचे रक्खा ही था कि पूरी कक्षा में शोर मचने लगा था। सिर नीचा किए साहिरा 'म्याऊ।म-म्याऊं' का स्त्रोत खोजने का प्रयास कर रही थी। शालिनी भी उसी का अनुकरण कर रही थी कि उसके हाथ किसी नरम वस्तु के स्पर्श से चौंक उठे थे। पास बेठी साहिरा के लम्बे कोट की जेब से एक नन्हा मुख झाँककर बाहर आने की याचना में 'म्याऊं-म्या।ऊं' कर रहा था। इत्मीनान से एक हाथ कोट की जेब में डाले सारा उसे बाहर न आने देने का भरकस प्रयास कर रही थी।
मिस साहिरा, शायद आपकी 'पेट' घर जाना चाहती है। प्लीज टेक हर आउट आँफ दि क्लास...। साहिरा के विस्मय पर देवेश जी ने फिर कहा था-
बिल्ली अधिक देर आपकी पाँकेट में नहीं रह सकती, उसे घर की याद आ रही है। एक बात और याद रखिए, एक ग्रोन-अप लड़की और नर्सरी चाइल्ड में अन्तर होता है। यू अंडरस्टैंड माई प्वाँइंट? गम्भीर मुद्रा में डाँ देवेश चाँक उठा ब्लैक बोर्ड की ओर बढ़ गए थे। पूरी क्लास एकदम शान्त हो गई थी।
शालिनी को जबरदस्ती खींचती सारा क्लास के बाहर आ गई थी। अपमान से सारा का चेहरा तमतमा आया था।
नया-नया आया है, जमा रहा है। चार दिन बाद देखूँगी। तिरस्कार सारा के स्वर में बज उठा था। थोड़ी देर बाद सहज होती सारा फिर अपने पुराने अन्दाज में वापस आ गई थी।
चल शालू, लव-लेन चलते हैं, आज देखें वो बैजू बावरा और गौरी की जोड़ी कहाँ बैठी है।
हिन्दी विभाग के पीछे की सकरी पगडंडी लव-लेन कहलाती थी। झुरमुट और लता-कुंज में बैठने वाली युगल जोड़ियों के कई नाम सारा ने रख रखे थे। शालिनी कभी परेशान हो कह बैठती थी-
सारा! तेरी तो अम्मी नहीं हैं, जो चाहे कर। घर में कोई पूछने वाला तो बैठा नहीं है। मेरी सोच, अम्मा को अगर पता लग गया कि हम क्लासेज मिस करके बैजू और गौरी के दर्शन कर रहे हैं, तो मेरी जान ले डालेंगी, समझी?
शालिनी की ऐसी बातें सारा को बेहद उदास कर जाती थीं-
अच्छा अम्मा! बस तेरी ही माँ हैं, हमारी कुछ नहीं हैं? सारा का आहत कथन उसका ट्रम्प कार्ड था, उसके लिए कुछ भी कर गुजरने को शालू तैयार हो जाती थी।
ऐसी बात नहीं है सारा! तू तो जानती ही है अम्मा तुझे मुझसे भी ज्यादा चाहती हैं। हमेशा कहती है।- सारा सदैव प्रथम श्रेणी पाती है और तू पीछे रह जाती है।
लव-लेन के लता-कुंजो से बोर होकर जब दोनों डिपार्टमेंट पहुंचीं, सामने से सिद्धार्थ आ रहे थे। सिद्धार्थ को देखते ही सारा का अवसाद न जाने कहाँ उड़ गया था। एकदम चहक उठी -
चलिए सिद्धार्थ जी, एक-एक कप काँफी हो जाए।सुना है आज किसी बेजुबाँ को कोट की पाँकिट में पनाह दी थी? कहाँ से पकड़ लाई थीं उसे? सिद्धार्थ मुस्करा रहे थे।
अच्छा तो जूनियर्स से कैफियत तलब की जा रही है........उसे उसके घर भेज दिया। सारा मुक्त हॅंस पड़ी थी।
काँफी पीने के लिए तीनों जब रेस्तराँ में पहुंचे तो अचानक सारा को कोई ज़रूरी काम याद आ गया था। क्षमा-याचना के साथ जब सारा उल्टे पैरों लौटने लगी तो उसके साथ लौटने के उपक्रम में शालू भी खड़ी हो गई थी। दोनों हाथों से शालू को उसकी चेयर पर बैठा सारा ने सिद्धार्थ से कहा था-
सम्हालिए हमारी इस मोम की गुड़िया को, उसे डर है आपके साथ पिघल न जाए।
ओह सारा........ लज्जा से रंजित मुख शालिनी उठा भी न सकी थी।
क्या सचमुच मेरे साथ डर लगता है?  वैसे सुना है ठीक-ठीक लगता हूँ सबको।
मैंने कब कहा? सारा तो बस यूंही....... सिद्धार्थ के प्रश्न का क्या उत्तर देती शालिनी।
तो अच्छा लगता हूँ आपको?
किसी तरह काँफी का घूंट गले से उतार, शालिनी ने जब सिर उठाया तो सिद्धार्थ की मोहक मुस्कान ने उसे बाँध लिया था। दोनों को छोड़ सारा का आँधी की तरह चले जाना अचानक नहीं, पूर्व-नियोजित होता था, यह बात शालिनी बाद में समझ पाई। जब भी सारा की उस बात पर शालिनी ने क्रोध करना चाहा, सारा उसके गले में बाहें डाल मनुहार कर उठती थी-
मेरी प्यारी शालू, माफ कर दे! कसम खाती हूँ आगे कभी भी ऐसी ग़लती नहीं होगी। शालू के हॅंसते ही सारा चिढ़ाती थी- मन-मन भावे, मुंडिया हिलावे। शालू सारा के धौल जमाती, रोने-रोने को हो जाती थी तब कहीं सारा मानती थी।
देवेश जी के सेमिनार-क्लास में पहले दिन सारा एकदम गम्भीर, किसी हद तक निरीह बच्ची बनी बैठी थी। तल्लीनता से नोट्स लेते देख सब असमंजस में थे- शायद देवेश जी का रोब खा गई। बोलते-बोलते देवेश जी रूक गए, सब उनकी ओर देख रहे थे पर सारा उसी तन्मयता से पेन चलाए जा रही थी। उसकी काँपी पर दृष्टि डालते ही शालिनी भय से जड़ हो गई थी। काँपी के पूरे पृष्ठ पर देवेश जी का कार्टून बना हुआ था, हाथ में चाँक की जगह रूलर और मुंह पर बड़ी-बड़ी मूंछें थीं। सारा की काँपी उठा देवेश जी ने सराहना की थी-
काफी अच्छे चित्र बना लेती हैं। थोडे़ और प्रयास से काफी प्रसिद्धि पा सकेंगी।
काँपी वापस करते उनकी वार्ता पूर्ववत् चल पड़ी थी। सारा कटकर रह गई थी। कक्षा से बाहर आती लड़कियों ने छेड़ा था-
देवी जी! ये आपके सौन्दर्य का प्रभाव था जो बच गई, वर्ना आज आपकी खैर नहीं थी।
अरे नहीं, अपना चेहरा देख खिल गए थे। सोच रहे होंगे कोई उन पर भी इतनी श्रद्धा रखता है। सारा ने उपेक्षा से कहा था।
श्रद्धा नहीं...........मन-मन्दिर का देवता समझ रहे होंगे। अनिमा ने परिहास किया था।
देवता या दानव? सारा ने ऐसा मुंह बनाया कि सब हॅंस पड़े।
फाइनल एग्जाम्स पास आ रहे थे। शालिनी की प्रैक्टिकल-काँपी देखते देवेश जी ने अचानक पूछा था-
आप ही मिस साहिरा की बेस्ट फ्रेंड हैं शायद, काफ़ी इन्टरेस्टिंग हैं आपकी दोस्त।  जी हां ,बहुत जीवंत व्यक्तित्व है सारा का। हमेशा फ़र्स्ट डिवीजन पाती है। माँ नहीं हैं, शायद इसीलिए कुछ शैतान हो गई है, पर दिल की बहुत ही अच्छी लड़की है, सर!  उत्साहित शालिनी कुछ ज्यादा ही बता गई थी।
हल्की मुस्कान के साथ देवेश जी ने शालिनी की काँपी वापस कर दी। उनके कमरे से बाहर आते ही लड़कियों से बातों मे व्यस्त सारा को अलग खींच शालिनी ने प्रसन्नता से दमकते मुख के साथ जब देवेश जी से की गई अपनी बात बताई तो सारा बिफ़र पड़ी थी-
ऐ शालू की बच्ची, मेरी लाइफ़-हिस्ट्री दूसरों को बताने की जरूरत नहीं है, समझीं?  बड़े आए सारा की कहानी पूछने वाले!  आज अम्मा से जरूर तेरी शिकायत करनी है।
क्या कहेगी अम्मा से? कोई गलत काम तो किया नहीं जो डर जाएँ। शालिनी भी उस दिन अकड़ गई।
ठीक है, चल चाट खाने चलते हैं।
अम्मा को बता दूंगी, डाँ सेन का पीरियड कट कर, तू चाट खाने जाती है......... नहीं जाना है हमें। शालू भी नाराज हो सकती थी, सारा ने उसी दिन जाना।
अच्छा भई ले कान पकड़े, अब तो माफ़ कर दे, मेरी शालू! चल आज चाट नहीं, पीछे चलकर बतियाते हैं।
जाड़ों की गुनगुनी धूप में डिपार्टमेंट के पीछे उनका एक अपना प्रिय स्थान था। वहाँ पाँव पसारे, आकाश ताकते सारा की नई योजनाएँ शालिनी को सुननी पड़ती थीं। ताज्जुब की बात थी जब से डाँ सेन के स्थान पर देवेश जी उनका सेमिनार क्लास लेने लगे थे, सारा का पीरियड छोड़ने का आग्रह कम हो गया था। एक दिन शालू ने छेड़ा था-
क्या बात है, आजकल हमारी साहिरा चाट के स्थान पर डाँ देवेश के क्लासेज में ज्यादा रूचि रखने लगी है?
अरे जो मजा उन्हें बनाने में आता है वह चाट में कहाँ? देखा नहीं, जब भी कोई सवाल पूछो उनके कान तक लाल हो जाते हैं!  सारा को बना पाना आसान काम नहीं था।
डिपार्टमेंट की पिकनिक, पार्टी या अन्य समारोहों में सिद्धार्थ के साथ देवेश जी भी सारा और शालिनी के साथी हो जाते थे। उस बार डिपार्टमेंट की ओर से चचाई-फ़ाल्स ले जाया गया था। पीछे की सीट पर सिद्धार्थ और देवेश जी के साथ सारा और शालिनी बैठी थीं। सारा की बातें उस दिन न जाने कहाँ खत्म हो गई थीं। उसकी मूक भंगिमा पर शालिनी झुंझला उठी थी। सिद्धार्थ ने भी मजाक किया थी-
आज तो इस बात पर विश्वास करना कठिन है कि हम दो लड़कियों के साथ बैठे हैं, ऐसा सन्नाटा तो पुरूषों को भाता है न, डाँक्टर? शोध-कार्य में सिद्धार्थ डाँ देवेश के बहुत निकट आ गए थे, उन्हें वह 'सर' न कहकर डाँक्टर ही कहते थे।
किन सपनों में खो गई है सारा?  शालू ने भी टोका था।
बात करने का सिर्फ़ क्या मैंने ठेका ले लिया है, शालू? तू किस मर्ज़ की दवा है?  सारा नहीं होगी तो क्या मौन व्रत रखेगी? सारा ने चुप्पी तोड़ी थी, देवेश जी मुस्करा दिए।
चचाई फाल्स की धवल जलराशि अद्भुत सौन्दर्य की सृष्टि कर रही थी। दूर-दूर तक उड़कर आते जल-बिन्दु तन-मन भिगो रहे थे। आकाश में न जाने कहाँ से एक इन्द्रधनुष उग आया था। जलराशि में उसका प्रतिबिम्ब निहारती सारा ने ऊपर आकाश में इन्द्रधनुष देखने को ज्यों ही दृष्टि उठाई तो सामने देवेश जी की दृष्टि में खो गई। उसके मुखमण्डल की इन्द्रधनुषी आभा शालू और सिद्धार्थ ने पकड़ ली । सिद्धार्थ ने चुटकी ली थी-
सारा, तेरे मुंह पर इन्द्रधनुष कहाँ। से आ गया?  अभी तो आकाश में था न, शालू?
इन्द्रधनुष नहीं, देवराज इन्द्र स्वयं प्रतिबिम्बित हैं। हमेशा की भीरू शालिनी अचानक मुखर हो गई।
अच्छा, अब आपके भी पर उग आए है।! सम्हालिए भाईजान, कहीं आपसे दूर न उड़ जाए हमारी भोली मैना।
प्यार से सिद्धार्थ को सारा भाईजान पुकारने लगी थी। सिद्धार्थ को भाई बना सारा के एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति हो गई थी। सारा का कहना था छोटी बहिनों को तो उसका ममत्व और संरक्षण मिला है, पर उसे बड़े भाई का स्नेह और संरक्षण सि़द्धार्थ से ही मिला था। सारा के अब्बा घर में भी आर्मी का अनुशासन रखते थे। पत्नी के न रहने पर मातृविहीन पुत्रियों की सुरक्षा की भावना से वह और अधिक कठोर हो गए थे। छोटी बहिनें तो उनकी सूरत से भी डरती थीं। एक बार जो आँर्डर दे दिया वह पत्थर की लकीर हो गई। सिद्धार्थ पर सारा इतना अधिकार जमाए रहती थी कि उसकी हर माँग पूरी करना सिद्धार्थ का पुनीत कर्तव्य बन गया था। सारा ने न जाने कौन-सा ताना-बाना बुना था कि सिद्धार्थ और शालिनी एक-दूसरे से बॅंधते गए थे। सारा के बुद्धि-प्रदीप्त सौन्दर्य ने देवेश जी को मुग्ध किया था, यह स्पष्ट था। उसके अपूर्व सौन्दर्य, चंचलता और मोहिनी हॅंसी ने उन पर जादुई असर किया था। सारा के प्रति देवेश जी का अनुराग जाने-अनजाने छलकता रहता था, पर सारा यह सत्य स्वीकार करने को प्रस्तुत न थी। विलक्षण प्रतिभाशाली, सुन्दर व्यक्तित्व के स्वामी देवेश जी के आकर्षण से अछूती रहने का बहाना सारा सदैव करती रही।
अचानक एक दिन सारा बेहद उदास, खोई-सी शालिनी के पास जा खड़ी हुई थी। चेहरे पर छाए शून्य भाव से शालिनी घबरा गई थी-
क्या हुआ सारा, तबीयत तो ठीक है?
आज क्लासेज अटेंड नहीं करेंगे शालू, चल बाहर चलते हैं। शालू की व्यग्रता अनुत्तरित कर सारा उसे बाहर खींच ले गई थी। डिपार्टमेंट के पास वाली प्रिय अमराई में बैठकर भी सारा का मौन नहीं टूटा था। झुंझलाकर शालिनी ने पूछा था-
अब बता न, क्या बात है? फ़िजूल में ये मातमी चेहरा लटकाए परेशान कर रही है हमें। शालिनी की झिड़की के प्रत्युत्तर में सारा के गोरे-गोरे गालों से होकर आँखों से मोती ढुलकने लगे थे।
आज अम्मी की बहुत याद आ रही है शालू! छोटी-सी थी तभी अम्मी चली गई। अब्बा की पाबन्दियाँ उन्हें खा गई, शालू!
आज वो पुरानी बातें क्यों दोहरा रही है, सारा?  तेरा जी अच्छा नहीं है तो चल घर चलें, अम्मा के पास तेरा मन बदल जाएगा। शालू के उठने के उपक्रम पर सारा ने उसका हाथ पकड़ बैठा लिया था।
जानती है शालू, जो कभी नहीं होना चाहिए था, हो गया। आज देवेश जी ने प्रोपोज़ किया है। क्या करूँ, शालू? काश, मैं मर सकती।
हाय राम, मरें तेरे दुश्मन! इतनी अच्छी न्यूज पर मिठाई की जगह ये मनहूस सूरत बना रखी है जनाब ने! सच कित्ती अच्छी जोड़ी जमेगी, उनके साथ। चल इसी बात पर क्वालिटी चलते हैं। शालू का उत्साह स्वाभाविक ही था।
तू समझती क्यों नहीं, शालू?  ये असम्भव है! अब्बा ज़िन्दा जमीन में गाड़ देंगे।
वाह, भली कही........आप अनारकली नहीं हैं मिस साहिरा, बालिग हैं। अगर अंकल नहीं मानें तो कोर्ट में जाकर सिविल मैरिज कर सकती हो। अब कहाँ गई तेरी दिलेरी?
बात सिर्फ अपने तक हो तो दिलेरी चलती है, शालू!
उसकी परेशानी समझ में आ रही थी। दूसरे जाति-धर्म के देवेश जी के साथ क्या सारा के अब्बा विवाह की स्वीकृति देंगे ? सारा की अम्मी का सपना था सारा उच्च शिक्षा पाए। अम्मी की असाययिक और अप्रत्याशित मृत्यु से सारा के अब्बा विचलित हुए थे। अम्मी की आखिरी इच्छा को सम्मान देने के लिए उन्होंने सारा को काँलेज जरूर भेजा था, पर काँलेज में एडमीशन दिलाने के पहले सख्त शब्दों में अपनी हिदायत दोहराई थी-
तुम्हें काँलेज भेज जरूर रहा हूँ, पर खयाल रखना अनजाने में भी कोई ऐसा काम न कर बैठो जिससे हमारे खानदान की नाक कट जाए। ज़ाहिदा और तबस्सुम का भविष्य तुम्हारे नाम रख रहा हूँ।
सारा की खामोशी पर उन्होंने दोहराया था-
क्या बात है, तुम चुप क्यों हो? क्या ये शर्त तुम्हें मंजूर नहीं?
जी.......... ऐसा कोई काम नहीं होगा मुझसे जिसके लिए आपको शर्मिन्दा होना पड़े। सारा का मुख चमक उठा था।
आज ज़ाहिदा और तबस्सुम का भविष्य उसके निर्णय पर आश्रित था। शालू ने उसे समझाना चाहा था-
तू समझती क्यों नहीं, सारा?  देवेश जी तुझसे विवाह करना चाहते हैं। हम तेरे साक्षी रहेंगे। उनसे विवाह करना कोई ग़लत काम नहीं है, सारा!
सदा की निर्भीक सारा उस समय निरीह गौरैया सदृश अपने सारे पंख सिकोड़ बैठ गई थी। शालिनी और सिद्धार्थ ने समस्या जब देवेश जी के सामने रखी तो वह गम्भीर हो उठे। सारा की जीवन्तता तिरोहित हो गई थी। सारा की उदासी से पूरा वातावरण बोझिल हो उठा था। शालिनी झुँझला उठी।
बहुत साहसी बनती थी! अगर हिम्मत नहीं थी तो पहले ही घर बैठना था। कहाँ गया वो तुम्हारा दुस्साहसी व्यक्तित् ? सारा का उदास मुख देख कुछ और कह पाना भी तो सम्भव नहीं था। सारा पाला-पड़े वृक्ष की तरह सूखती जा रही थी।
एम ए की फाइनल परीक्षा समाप्त होते ही लम्बे गर्मियों के दिन काटने मुश्किल हो गए थे, उस पर सारा थी कि बात ही नहीं करती थी। सिद्धार्थ और देवेश जी उसकी उदासीनता से परेशान थे। अचानक एक भरी दोपहर सारा का फोन आया था-
शालू, अभी-अभी पता लगा है कल हम सब दिल्ली जा रहे हैं।
।दिल्ली..........? क्यों, क्या कोई खास बात है ? तू इतनी घबराई-सी क्यों है?
पता नहीं क्या बात है, अब्बा ने बस आँर्डर दे डाला। तैयारी कर लो,  कल चलना है।
तूने पूछा नहीं?  दिल्ली में तेरी मौसी रहती हैं- वहाँ जा रही है क्या?
मौसी तो हैं, पर यूं बिना वजह जाना समझ में नहीं आ रहा है। मेरा जी बहुत घबरा रहा है शालू!
तो पापा से कुछ पूछ क्यों नहीं लेती सारा? मैं आ जाऊं?
पूछा तो था, बस कह दिया ज़रूरी काम है। हाँ, ये भी कहा है किसी से कुछ कहने-सुनने की ज़रूरत नहीं है।
साथ और कौन जा रहा है?
वो भी पता नहीं, पर शायद लखनऊ से ज़ाहिदा और...............। फोन कट गया था या काट दिया गया था।
उस वक्त सिद्धार्थ या देवेश जी से कांटेक्ट करना भी सम्भव नहीं था। रिक्शे में चिलचिलाती धूप झेलती शालिनी जब सारा के घर पहुंची तो बाहर बैठे नौकर ने सूचना दी थी-
छोटी मिस साहिबा, साहब के साथ किसी से मिलने गई हैं।
पर अभी तो मैंने उन्हें फोन किया था, बताया था यहाँ पहुंच रही हूँ। शालू विस्मित थी।
नौकर ने नकारात्मक सिर हिला अपनी अनभिज्ञता जाहिर कर दी थी। निरूपाय लौट आने के अलावा शालिनी के पास अन्य कोई विकल्प शेष न था। घर से शालिनी ने कई बार फोन ट्राई किया, पर सारा के यहाँ फोन किसी ने अटेंड नहीं किया। दूसरे दिन शाम शालिनी के फोन के उत्तर में किसी भारी पुरूष-स्वर ने सूचित किया था- सारा दिल्ली जा चुकी है।
शालिनी घर में सिद्धार्थ के पहुंचने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही थी। सिद्धार्थ के पहुंचते ही शालू एक साँस में सब बता गई थी।
सिद्धार्थ, हमें बहुत डर लग रहा है, लग रहा है सारा के साथ कुछ अघटित घटने वाला है।
सिद्धार्थ भी कुछ देर मौन रह गए थे।
शालू, तुम्हारे पास सारा का दिल्ली का एड्रेस है?
न ........उससे पूछने का मौका ही कहाँ मिल पाया था? फोन पर बात भी तो आधी रह गई थी सिद्धार्थ!
यहाँ कोई सारा का रिश्तेदार है- जानती हो किसी को?
हमें पता नहीं..........सारा के लिए तो सब-कुछ हम ही थे न सिद्धार्थ! शालिनी का गला रूँध गया था।
सिद्धार्थ भी सारा के घर से निराश ही लौटे थे-
लगता है नौकर को भी पट्टी पढ़ा दी गई है या सचमुच वह कुछ नहीं जानता।
पर क्यों सिद्धार्थ? ऐसी क्या बात हो गई?
वही तो समझना है। सिद्धार्थ गम्भीर थे।
देवेश जी पूरी बात सुनकर मौन रह गए थे। गर्मियों की लम्बी दोपहरें भी सूनी और बोझिल हो उठी थीं। शालिनी का मन अपनी सारा के लिए हर पल आशंकित रहता था।
अचानक एक शाम सारा के अब्बा को अपने घर आया देख शालिनी खिल गई। अभिवादन के साथ ही उत्सुक स्वर फूट पड़ा था- ।
आप कब वापस आए अंकल?  सारा कैसी है?
वही बताने आया हूँ बेटी,  आओ अन्दर चलते हैं। उनके गम्भीर स्वर से शालू आतंकित हो उठी। कमरे में पहुंच सारा के पापा ने उदास स्वर में कहा था- ।
बहुत बड़ा हादसा हो गया, बेटी! दिल्ली में सारा किडनैप कर ली गई।
क्या..........कक............? शालिनी के विस्फारित नयनों को एक पल ताक उन्होंने आगे बताया था-
दिल्ली स्टेशन की भीड़ में वह कुछ पीछे रह गई थी, सामान के साथ मुझे आगे जाना पड़ा था। पीछे बराबर उसे देखता जा रहा था,  अचानक एक और ट्रेन की भीड़ आ जाने से उसे कुछ देर देख पाना कठिन हो गया था। भीड़ छूंटने पर वह कहां गई......कुछ पता नहीं चला।
ये क्या हो गया अंकल?.......... पुलिस मे रिपोर्ट तो लिखाई थी?
सब-कुछ किया बेटी, पर कहीं कुछ पता नहीं लगा। उनकी आँखों में वाष्प-कण छलकने को आतुर थे।
आपने टी वी पर सूचना क्यों नहीं दी अंकल? न्यूजपेपर में फोटो भी तो निकाली जा सकती थी?
एक जवान लड़की के यूं गायब हो जाने की खबर कितनी कहानियों को जन्म देगी, समझती हो न, बेटी? सारा की छोटी बहिनों का भविष्य दाँव पर लग जाएगा- उनका कहीं रिश्ता भी मुश्किल हो जाएगा। सब यही कहेंगे जवान बहिन किसी के साथ भाग गई उसकी बहिनें भी वैसी ही होंगी। समझ रही हो न मेरी मजबूरी? सारा के दबंग अब्बा एक निरीह पिता-भर रह गए थे।
पर अंकल, सारा का क्या होगा ............कैसी, किस हाल में होगी...........न जाने कहाँ...... दहशत के कारण शालिनी आगे सोच भी न सकी थी।
तुमसे एक इल्तिज़ा है बेटी, इस राज को राज ही रहने देना। अपनी सारा के लिए इतना कर सकोगी न?
मैं वादा करती हूँ, पर अगर सारा वापस आ गई तो आप उसे स्वीकार कर लेंगे न, अंकल ? शालू व्यग्र थी।
दोनों हाथ उठा उन्होंने शायद भगवान से कुछ कहा था, पर शालू की आश्वस्ति के लिए एक शब्द भी नहीं कहा गया था।
सिद्धार्थ से पूरी बात सुन देवेश जी स्तब्ध शून्य मे ताकते रह गए थे। शालिनी को सावन का वह दिन बार-बार रूला रहा था जब अम्मा ने शालू के साथ सारा की हथेली पर भी मेंहदी लगाई थी। सावन में मुहल्ले-भर की लड़कियों के मेंहदी लगाने में अम्मा को अपूर्व आनन्द मिलता था। चूड़ी वाली पहले ही बुला ली जाती थी, हर लड़की अपने-अपने मन की चूड़ियाँ पहनती थी। शालिनी की मेंहदी हल्के रंग की चढ़ी थी, पर सारा की गोरी हथेलियों पर पलाश दहक उठे थे। शालू ने सारा को चिढ़ाया था-
अम्मा कहती हैं जिसके मेंहदी गहरी चढ़ती है उसे बहुत प्यार करने वाला पति मिलता है। इसीलिए देवेश तुझे इतना ज्यादा चाहते हैं।
ये तो रक्त-कमल हैं शालू! मूझे तो हमेशा से मेंहदी के रंग खून के छींटे-से लगते हैं।
छिः, कितनी वीभत्स कल्पना है तेरी! हर बात के उल्टे ही अर्थ लगाती है। शालू नाराज हो उठी थी।
नाराज न हो मेरी शालू, बचपन में किसी ज्योतिषी ने हाथ देखकर कहा था- इसकी किस्मत में सुख नहीं, शायद इसीलिए हर बात में निराशा ही देखती हूँ। अम्मी जब से चली गई, अपने लिए किसी अच्छी बात के विषय में नहीं सोच पाती।
शालू ने सारा के हाथ स्नेह से पकड़ लिये थे-
अच्छा सारा, सच कह- हम क्या तेरे कुछ नहीं लगते?
सब-कुछ तुम्हीं तो हो! अम्मा को देख अम्मी को भूल बैठी हूँ।
दोनों मुस्करा दी थी।
कहाँ होगी सारा? उदास दिन और रातें यूं ही बीतते जा रहे थे। सिद्धार्थ और देवेश दिल्ली से निराश वापस लौट आए थे। सारा की मौसी ने भी वही कहानी दोहरा दी थी। न जाने कितनी अवांछित गलियों, अड्डों पर दोनों गए थे, पर हर जगह निराशा ही हाथ लगी थी। देवेश जी का उदास मुख सिद्वार्थ और शालिनी को व्यथित करता था। मौन रहकर भी तीनों एक-दूसरे से न जाने कितना अनकहा कह जाते थे।
सारा के अब्बा की तो शक्ल ही बदल गई थी। शालू जब भी उनके पास जाती, दोनों सारा की ही बातें करते रह जाते। हल्का निःश्वास ले एक दिन उन्होंने कहा था-
काश, उसकी मर्ज़ी के खिलाफ उसे दिल्ली न ले जाता!
मर्ज़ी के खिलाफ..........क्यों अंकल?
कुछ ऐसी ही बात थी बेटी! सैयदों की बेटी गैर जात-धर्म में नहीं जा सकती। हमेशा खटका ही लगा रहता था इसीलिए....। मुझे जो सज़ा मिलनी थी मिल गई।
अंकल! अगर सारा वापस आ जाए तो.............।
न बेटी, अब तो यही दुआ है, कोई उसकी मौत की खबर सुना दे तो तसल्ली हो जाए।
शालिनी विस्मित थी। कभी उसे इस घटना के पीछे किसी साजिश का एहसास भी होता था। सिद्धार्थ ने भी एक दिन शंका व्यक्त की थी-
कहीं ऐसा तो नहीं, सारा की शादी कर उसे विदा कर दिया गया हो?
पता नहीं सिद्धार्थ, सारा की चिन्ता खाए जा रही है। पता नहीं सारा की क्या नियति थी। शालिनी का कंठ भर आया । सिद्धार्थ ने अपना सांत्वनापूर्ण हाथ उसके कन्धे पर धर, सहानुभूति व्यक्त करनी चाही थी।
मेरी तो एक ही बहिन थी। सारा के न रहने से मैं फिर अकेला हो गया हूँ। शायद मैं ही अभागा हूँ; बहिन का स्नेह मेरी किस्मत में नहीं था। सिद्धार्थ भावुक हो उठा।
जानते हो सिद्धार्थ, सारा ने एक फ़ोटो दिखाई थी- उसकी चाची के बेटे थे, साहबजादे ने सारा से शादी का पैग़ाम भेजा था
सारा ने क्या जवाब दिया था पैग़ाम का? सिद्धार्थ को समस्या समझ में आ रही थी।
सारा की बात छोड़ो, हमने ही कह दिया था हमारी बुद्धि-प्रदीप्त आँखों वाली सारा की उस सामान्य-से व्यापारी के साथ कभी पट ही नहीं सकती। हमारी उस बात पर सारा ने हमे जी-भर चाट खिलाई थी, सिद्धार्थ!
उसके बाद क्या आगे बात बढ़ी थी, शालू?
ये तो नहीं मालूम, पर कभी-कभी सारा बेहद डर जाती थी कि कहीं उसकी शादी ज़बरदस्ती उससे न कर दी जाए।।
कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है, शालू!। सिद्धार्थ भी सहमत थे।
सारा के बिना सिद्धार्थ और शालिनी अपने विवाह की बात भी नहीं सोच सकते थे। देवेश जी ने एकाध बार बात भी उठाई, पर दोनों ही उस समय तैयार नहीं थे। सारा कहा करती थी- सिद्धार्थ भाई, आपकी शादी में मेरा दोहरा रिश्ता होगा। एक ओर बहिन का नेग लूंगी, दूसरी ओर साली का। बोलिए, है मंजूर?
एक ही तो बहिन है तू, मुंहमाँगा नेग दूंगा, पर अब जल्दी से तारीख तो पक्की करा दे! स्नेह से सिद्धार्थ उसकी हर बात मान जाते थे।
तभी एक-साथ दो घटनाएँ घटी थीं- देवेश जी भारतीय प्रशासनिक सेवा में सफल रहे थे और सिद्धार्थ की उनके स्थान पर विश्वविद्यालय में नियुक्ति हो गई थी।  देवेश जी को विदा करते शालिनी का मन भर आया था। जाते-जाते देवेश जी ने कहा था-
मैं सारा को खोज निकालूंगा शालू! मेरा मन कहता है, वह मुझे ज़रूर मिलेगी।
आपकी बात ही सच हो, देवेश जी! न चाहते भी शालिनी के नयन भर आए थे।
हम दोनों तुम्हारी शादी में आएँगे सिद्धार्थ, मेरा विश्वास है।
इसी सच पर विश्वास करने को जी चाहता है, देवेश!  भगवान तुम्हें सफलता दें। सिद्धार्थ का मुख चमक उठा था।
उस पल देवेश के विश्वास पर शालू को विश्वास हो आया था। देवेश जी के पत्र बराबर आते रहते थे। हर पत्र से आतुर प्रेमी की उत्कंठा झाँकती रहती थी। अम्मा शालू का विवाह कर निश्चिन्त हो जाना चाहती थीं, पर शालू और सिद्धार्थ को सारा की प्रतीक्षा थी। अम्मा नाराज़ हो उठती थीं-
जिस लड़की को उसके बाप तक ने भुला दिया, उसके नाम को तू सारी उम्र बैठी रहेगी, शालू? क्या सारा से मुझे कम प्यार था?  पर भगवान को जो मंज़ूर है उसके आगे किसका वश चलता है, बेटी?
वह ज़रूर आएगी, अम्मा! शालू के विश्वास के आगे माँ हार जाती थी।
और आज सारा का पत्र लिये शालिनी खुशी में पागल-सी हो रही है। वह नन्हीं-सी पंख समेटे गोरैया आकाश की ऊंचाइयाँ नापने, अन्ततः पंख पसार उड़ ही गई थी। सारा ने पत्र में लिखा था-
.............अपने ही घर में बंदिनी बना दी गई थी, शालू! पापा के किसी शुभचिन्तक ने उन्हें बताया था कि उनकी बेटी किसी के प्यार में दीवानी हो रही है। मुझसे कुछ जानने-सुनने की भी जरूरत नहीं समझी गई। आनन-फानन उन्हीं चचीजान के साहबजादे से शादी की बात पक्की कर तुरन्त शादी का फ़ैसला ले लिया गया । शादी दिल्ली से करने में किसी तरह के डर या गड़बड़ी की तो आशंका भी नहीं थी। फाँसी के मुज़रिम से भी उसकी अन्तिम इच्छा पूछी जाती है, मुझे उस लायक भी नहीं समझा गया था। असलियत पता लगने पर मैंने भूख- हड़ताल भी की, पर तू मेरी स्थिति जानती है न?
फोन पर तुझे बता पाना संभव नहीं था, सब तरफ पहरे थे। तुझसे बात करनी चाही, पर अधूरी रह गई। दूसरी सुबह ही अब्बा जबरदस्ती दिल्ली ले गए थे। सच शालू, उस वक्त यही एहसास हो रहा था मैं किडनैप कर ली गई हूँ। दुश्मन द्वारा किडनैपिंग झेली जा सकती है शालू, पर अपनों द्वारा किडनैपिंग की त्रासदी तू नहीं समझेगी। पूरे रास्ते इसी बात को सोचती रही- निर्णय नहीं कर सकी, पर भीड़ के उस रेले ने मुझे अचानक राह दिखा दी। भीड़ में लोग खोते हैं, पर मैं तो अपनी राह पा गई, शालू! भीड़ का कोई धर्म नहीं, कोई जाति नहीं, उसी भीड़ का अंग बन मैं जी गई, शालू! विपरीत मार्ग अपना स्टेशन के बाहर आ गई थी। रास्ते में स्टेशन से जो मैगजीन खरीदी थी उसमें एक महिला-संस्था का दिल्ली का पता दिया हुआ था। वहाँ पहुंच साफ़ कह दिया था, मुझे किडनैप किया गया था, मेरे घरवाले अब मुझे स्वीकार नहीं करेंगे। पढ़ी-लिखी थी, सो संस्था में काम मिल गया। किडनैपर्स का उद्धेश्य कोई शत्रुता थी, पर उन्होंने किसी तरह का कोई नुकसान नहीं पहुंचाया, इसलिए उनके प्रति कोई शिकायत नहीं।
न्यूज़-पेपर में देवशजी का भारतीय प्रशासनिक सेवा के सफल प्रत्याशियों में नाम देख रहा नहीं गया।  अपने  नाम-पते के बिना उन्हें बधाई भेज दी थी। उसी अनाम बधाई के आधार पर देवेशजी यहाँ पहुंच गए। कल हम दोनों कोर्ट- मैरिज कर रहे हैं। देवेशजी तुम्हें सरप्राइज देना चाहते थे, पर खुशी का यह पल तेरे साथ बाँटे बिना क्या मैं रह सकती थी, शालू? आज तो सारा आकाश बाहों में सिमट आया है, मेरी शालू,।
सारा!
शालू के नयनों से झरते आँसू देख अम्मा घबरा गईं -
क्या हुआ बिटिया.....कोई अशुभ समाचार?
हौले से हाथ बढ़ा शालू ने अम्मा के हाथ में सारा का पत्र थमा दिया ।





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